शनिवार, 14 नवंबर 2009

समर्पण...!

दिव्य नही गर दीप हो तुम,मैं कहाँ विषधर, कहाँ तुम हो प्रिये कुमकुम..!
कर समर्पण तुझमे अपना स्वत्व मैं यह मान लूँ ,
कि तू सुधा से है लसित,औ, मैं गरल में गुम..हाँ,मैं गरल में गुम....!

जीव-प्रकृति की इस अद्भुत प्रणय-लीला के लिए,
बनके आया हूँ मैं उस अमरत्व की इक बूँद..
जिसकी खातिर जन्मते हैं सैंकड़ों नर-नारीगण,
औ,चाँद-लम्हे ढारकर खो जाते हैं बन धुंध....हाँ मैं गरल में गुम..!


दीप की उत्तुंग ज्योति में स्वत्व का आवेश कर,
क्यूँ भला, वह कीट कहता स्नेह का फ़िर वेश धर..
तू ही मेरा धर्म है औ तू ही मेरी आत्मा,
पाश में खो जाऊं तेरे मैं विरल बन धूम... हाँ,मैं गरल में गुम....!


भूलकर भी मैं तुम्हे कर याद सकता हूँ प्रिये,
क्यूँ सोचती हो इस तरह क्या भूलना मैं छोड़ दूँ.
भूलना है इक क्रिया तो याद करना प्रतिक्रिया,
स्नेह के आवेश में ये द्विपदी है अनुलोम...हाँ, मैं गरल में गुम..!

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