व्यस्त केश सह दो मृदंग अरु शीत नयन से कहाँ चली..?
चैन शिखर का लूट कृपण-सी चंचलता से नहा चली....
चन्द्र बना मैं शीतलता से व्योम केश से कह आया...
मैं तेरा अर्धांग इधर हूँ तुम हो कहाँ जगाद्माया..?
नैनों की मदिरा छलकाकर मृगनयनी बन इठलाती..
तू मृगी मृग तेरा मैं फिर क्यूँ पास आने में सकुचाती..?
अगर कहो तुम निश्छल हंसी हो औ मैं असुअन की धारा..
तब निर्द्वंद्व भाव से फिर मैं छोर चलूँ यह जग सारा..
तुम बिन जीना इस दुनिया में मुझको नहीं गंवारा...
बस इतना कह पाउँगा मैं तुम जीते मैं हारा...
तुम जीती मैं हारा सखी-री, तुम जीती मैं हारा...!
कवि बनने की राह पर नए खुशबूदार पुष्प मिले ,उन्हें एक माला की तरह,अपने कविता-प्रेम के धागे में पिरोकर आगे बढ़ता गया,इन नए पुष्पों को संजोने की कोशिश में एक बहका सा और थोडा भटका सा शायर बन बैठा ,यहाँ प्रस्तुत हैं कुछ वैसे ही अनमोल पुष्प जिन्हें अलग विषयों और अलग-अलग लोगों की पसंद के अनुसार लिखा था मैंने.आप सबसे यही अपेक्षा है कि मुझे आपके प्रेम की छाँव-तले और भी नए खुशबूदार पुष्प मिलें.जिन्हें अपने उसी प्रेम की माला में पिरोकर मैं एक अच्छा शायर और एक उत्कृष्ट कवि बन जाऊं!
बहुत ही सुंदर और भावपूर्ण कविता लिखा है आपने! इस बेहतरीन और शानदार कविता के लिए ढेर सारी बधाइयाँ!
जवाब देंहटाएंbehad khoobsoorat rachna !
जवाब देंहटाएं:)