शनिवार, 7 नवंबर 2009

व्यस्त केश सह दो मृदंग अरु शीत नयन से कहाँ चली..?
चैन शिखर का लूट कृपण-सी चंचलता से नहा चली....

चन्द्र बना मैं शीतलता से व्योम केश से कह आया...
मैं तेरा अर्धांग इधर हूँ तुम हो कहाँ जगाद्माया..?


नैनों की मदिरा छलकाकर मृगनयनी बन इठलाती..
तू मृगी मृग तेरा मैं फिर क्यूँ पास आने में सकुचाती..?


अगर कहो तुम निश्छल हंसी हो औ मैं असुअन की धारा..
तब निर्द्वंद्व भाव से फिर मैं छोर चलूँ यह जग सारा..


तुम बिन जीना इस दुनिया में मुझको नहीं गंवारा...
बस इतना कह पाउँगा मैं तुम जीते मैं हारा...


तुम जीती मैं हारा सखी-री, तुम जीती मैं हारा...!

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुंदर और भावपूर्ण कविता लिखा है आपने! इस बेहतरीन और शानदार कविता के लिए ढेर सारी बधाइयाँ!

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