गुरुवार, 26 नवंबर 2009

यह ज़ज्बा नहीं थमेगा............!

अब हमारी ख़ामोशी का इम्तिहान मत लेना....
नहीं-नहीं बुत हम नाकामी का तुम शोर न करना..

हमें दुश्मनी का जैसा तुम पाठ पढ़ाते हो अब
उसी रपट के इश्तिहार पे तुम अब जोर न करना..

अगर खून से मासूमों के खेल तुझे भाते हैं....
मगर खुदा की सूराएँ बेमेल नज़र आते हैं.....

जिस कुरआन की तुम आयत का देते सदा हवाला..
उसी पाक कुरआन की अब तुम बात कभी न करना...

उसने जिसे सभी खुदा का नाम इधर है लाया .
उसकी हर नेमत प्यारी है, है वो बड़ा खुदाया..

अब उसके नामों की तुम बस पाक इबारत करना...
दे देगा वो जन्नत तुमको तुम बस जतन ये करना..

मंज़र नहीं तबाही का अब फिर से मुह बाएगा..
हैवानों पे इंसानों का फतह नज़र आएगा....

उन वीरों की कुर्बानी को हर लम्हा याद रखेगा..
अब खूं कितना भी बह जाये यह ज़ज्बा नहीं थमेगा..

रविवार, 22 नवंबर 2009

जिंदगी

जिंदगी ने बिखरने की साज़िश रची
पर वो अपनी हया से सँवरती रही..
देख दर्पण में उसके हया की अदब,
जिंदगी भी अदब से निखरती रही..!

मैंने इज़हार के जब तराने लिखे,
वो तरानों के कागज कुतरती रही..
मैं तो उसकी अदाओं से बेहोश था..
फिर भी वो दिल में चुपके उतरती रही....!

उसके दीदार के आशियाने में बन ,
के अपनी हया श्वांस भरती रही..
बेअदब होके "चंपक' की ये जिंदगी,
ख्वाहिशों के समंदर में तरती रही...

मैं आया हूँ.......

रिमझिम रिमझिम झमझम सावन, भींगे तेरा तन मोरा मन,
इस सावन में भींग-भींग कर, झूमे क्यूँ मेरा ये तन-मन,
झूम-झूम के तुझे पुकारे, कहाँ छुपे हो मेरे रति-मन,
तेरे मिलन की शीत-प्यास से,मैं आया हूँ शरद-ऋतू बन...!

मुझे तनिक सा संवार देना, बिखरा-बिखरा सा है तन-मन...
तेरी ऊष्मा निखार देगी, सोच यही हर्षित हैं अंजन..!
प्यासे सावन से भींगे मन, मांगे तेरे चंचल अंजन..
तेरे मिलन की शीत-प्यास से,मैं आया हूँ शरद-ऋतू बन...!

शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

नव-भारत..

जिसने जीवन को दांव लगा नव-युग भारत की नींव रखी...
उनने देखे सपने बनने को जगदगुरु की चाह रखी.....
उनकी यादों को कर विस्मृत हमने क्या उनकी लाज रखी....
क्या यही वही है नव-भारत, या फिर यह है कुछ और सखी..?

अपनी इच्छा का घोंट गला क्यूँ बलिदानों की राह चुनी..
क्या यही सोचकर अंग्रेजों के जन-विरोध की तान बुनी...
के अब भारत प्रगति-पथ पर आगे ही बढ़ता जाएगा...
क्या यही वही है नव-भारत, या फिर यह है कुछ और सखी ....?

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

अदाएं....

अदाएं आशिकों की 'जान' तो होती नहीं चम्पक,
अदाएं 'जान' ले, शम्मे-हंसी की शान होती है....
कभी कोई ग़ज़ल हालात पे शायर अगर लिख दे,
अगर शायर न हो शामिल ग़ज़ल बेजान होती है..


कभी भँवरे ने कलियों से कभी कांटे ने फूलों से
बयां अपने मुहब्बत का नज़ारा यूँ किया दिल से...
मैं तेरी राह में मिट जाऊं तेरी दास्ताँ बनकर,
मुझे खारिज न कर देना तेरे इबरार-इ-महफ़िल से ..
.

बुधवार, 18 नवंबर 2009

सुन जरा-सा ..!

ओ सजीले, नयन नीले, अधर तेरे हैं रसीले....
सुन ज़रा-सा, स्नेह तेरा, मांगता हूँ और क्या..?


घोलती है कान में बस, यूँ तेरी आवाज हरदम...
तुम न हो जो पास तो, फिर सांझ क्या, फिर भोर क्या...?


पूछता है दिल मुझी से, तुम कहो क्या चाहते हो....
मैं कहूँ क्या,कह सका ना, दिल में है क्या, जान में क्या...?


मैं तुझे मदिरालयों में ढूंढता-फिरता रहा हूँ....
तुम मिले तो सांझ क्या,जब ना मिले तो भोर क्या...?


सुन तेरी आवाज अब मैं, हर-तरफ पहचानता हूँ....
तुम रहो गुमसुम सदा, तो गीत क्या, फिर शोर क्या....?

बाल-सलाह !

'सचिन' ध्यान दें खेल पर ऐसी 'बाल'-सलाह..
राजनीति के खेल पर उनकी आह-कराह...
उनकी आह-कराह मराठी हित की बात सुनाती..
पर ख़ुद की गुगली से ही पिटने पर शोर मचाती..

जीवन के अन्तिम लम्हों में भजन करें या कीर्तन..
पिछले वर्षों के पाप धुले ऐसे हो धर्मज-कर्मण..
ऐसे हो धर्मज कर्मण के अब गर्व मराठी कर लें...
सैनिक का धर्मं निभाना हो तो याद शिवा को कर लें..





मंगलवार, 17 नवंबर 2009

दिल की शायरी....

आंसुओं की स्याही से दिल के कागज पे
बयां हो दर्द-ऐ-दिल तो उसे दिल की डायरी कहते हैं,और,
महबूबा की खिदमत में महबूब के होठों से
बयां हो दर्द-ऐ-दिल तो उसे दिल की शायरी कहते हैं...!



ग़मों की आंच पे आंसू उबाल कर देखो,
बनेंगे रंग मेरे दिल पे दाल कर देखो..
तुम्हारे दिल की चुभन भी ज़रूर कम होगी,
मेरे दिल में चुभे कांटे निकाल कर देखो....!


अपने होठों पे यूँ ही मुस्कान बिछाए रखना,
अपनी आँखों में यूँ ही खुशियाँ सजाये रखना..
तुझे पाने को हर पल मचलता होगा वो,
उसकी चाहत को अपने दिल में यूँ ही जगाये रखना...!


तेरे होठों से खुद को पीने की ख्वाहिश है मेरी,
इस क़दर छह रहा है नशा मुझपे तेरी जवानी का..
तुझे तो मिल जायेंगे सनम कितने हसीं तराने,पर,
इतना तो बता क्या होगा फिर मेरी कहानी का..?


जबसे देखा है तुमको मेरी चाहत खो गयी है,
तुझे पाना है शायद इसीलिए तुझसे मुहब्बत हो गयी है..
देखो,अब न मत कह देना,क्यूंकि,
तुझे पाकर लगेगा के मेरी इबादत हो गयी है......!


कभी दिल के झरोखे में तेरा ही एक सपना था,
कभी पलकों के साए में मेरा एक दोस्त अपना था..
तुझे तो दिल की चौखट पे कभी मैंने बुलाया था,
वो,यूँ के नाम मेरे लब को बस तेरा ही जपना था...!


जहाँ देखूं वही तेरी ही खुशबु से महकता है,
जिसे चाहूँ वो भी तेरी ही गलियों में चहकता है..
कभी खुद की तरफ जो गौर से देखा यूँ ही मैंने,
मेरी आँखों में केवल तू ही बस्ती है ये लगता है..!

दोस्ती में दर्द हो तो वो प्यार होता है,
दर्द कुबूल हो तो वो इकरार होता है..
दर्द सह न पाओ तो वो इंतज़ार होता है,और,
दर्द सह लो तो वही तो इश्क-ऐ-इज़हार होता है....

सोमवार, 16 नवंबर 2009

तेरे इश्क में..

तेरे इश्क में मैं इस क़दर जिया हूँ के जीना भी जेने -सा लगता नहीं है ..
तेरे प्यार के गम में इस क़दर पिया हूँ के पीना भी पीने-सा लगता नहीं है....
तेरे इश्क में मैं.....

शनिवार, 14 नवंबर 2009

बाल-दिवस पर बच्चों को समर्पित: "बच्चे मन के सच्चे ."..

बच्चों के चाचा हैं जैसे बच्चे मन के सच्चे..
करते मनोविनोद सभी के बनके बच्चे अच्छे..
बनके बच्चे अच्छे सब लोगों को सदा सुहाते..
अभी शरारत हंसी-ठिठोली दुःख में भी ये सच्चे.
बिलकुल, बच्चे मन के सच्चे..
हाँ जी,बच्चे मन के सच्चे..!

समर्पण...!

दिव्य नही गर दीप हो तुम,मैं कहाँ विषधर, कहाँ तुम हो प्रिये कुमकुम..!
कर समर्पण तुझमे अपना स्वत्व मैं यह मान लूँ ,
कि तू सुधा से है लसित,औ, मैं गरल में गुम..हाँ,मैं गरल में गुम....!

जीव-प्रकृति की इस अद्भुत प्रणय-लीला के लिए,
बनके आया हूँ मैं उस अमरत्व की इक बूँद..
जिसकी खातिर जन्मते हैं सैंकड़ों नर-नारीगण,
औ,चाँद-लम्हे ढारकर खो जाते हैं बन धुंध....हाँ मैं गरल में गुम..!


दीप की उत्तुंग ज्योति में स्वत्व का आवेश कर,
क्यूँ भला, वह कीट कहता स्नेह का फ़िर वेश धर..
तू ही मेरा धर्म है औ तू ही मेरी आत्मा,
पाश में खो जाऊं तेरे मैं विरल बन धूम... हाँ,मैं गरल में गुम....!


भूलकर भी मैं तुम्हे कर याद सकता हूँ प्रिये,
क्यूँ सोचती हो इस तरह क्या भूलना मैं छोड़ दूँ.
भूलना है इक क्रिया तो याद करना प्रतिक्रिया,
स्नेह के आवेश में ये द्विपदी है अनुलोम...हाँ, मैं गरल में गुम..!

शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

उनकी परेशानी...!

" मेरी आवारगी से वो परेशाँ से नज़र आये..
मेरी बेचारगी से आँखों में आंसू छलक आये..
उन्हें, दिल को मेरे, रोने की आदत के ख्यालों ने,
बनाया इस कदर हैराँ के वो हंसते नज़र आये..! "

सोमवार, 9 नवंबर 2009

हया

मेरे इज़हार को कमज़ोर करने की तमन्ना से
मुझे हर रास्ते पे रोककर खुशियाँ मनाते हैं ..
मेरे हर जख्म को वो क्यूँ हरा करने की ख्वाहिश में
हया करते नहीं वो बेहया बन मुस्कुराते हैं..

शनिवार, 7 नवंबर 2009

व्यस्त केश सह दो मृदंग अरु शीत नयन से कहाँ चली..?
चैन शिखर का लूट कृपण-सी चंचलता से नहा चली....

चन्द्र बना मैं शीतलता से व्योम केश से कह आया...
मैं तेरा अर्धांग इधर हूँ तुम हो कहाँ जगाद्माया..?


नैनों की मदिरा छलकाकर मृगनयनी बन इठलाती..
तू मृगी मृग तेरा मैं फिर क्यूँ पास आने में सकुचाती..?


अगर कहो तुम निश्छल हंसी हो औ मैं असुअन की धारा..
तब निर्द्वंद्व भाव से फिर मैं छोर चलूँ यह जग सारा..


तुम बिन जीना इस दुनिया में मुझको नहीं गंवारा...
बस इतना कह पाउँगा मैं तुम जीते मैं हारा...


तुम जीती मैं हारा सखी-री, तुम जीती मैं हारा...!

गुरुवार, 5 नवंबर 2009

प्रतिबिम्ब...!


ये अधर नहीं प्रतिबिम्ब तेरी मधु से मीठे मुस्कान की है..
जिनके प्यासे अब तड़प रहे उनके प्रेयस अनुमान की है...
इनकी शीतलता के अनुभव का आलिंगन अब कौन करें....
इन होठों पे अब यही प्रश्न अधरों के मद-अभिमान की है..