मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009

बचपन-चिर-यौवन...!

बचपन के सपनो को ढोता अब डगर-डगर मैं भटक रहा,
अपनी हालत पे पछताता नैनो से आंसू छलक रहा..!

किसकी स्नेहिल आँखों से मैं देखूं कोई मधुरिम सपना,
अब नज़र नहीं आता दुश्मन अब नहीं रहा कोई अपना..!

किसने पैरों से है कुचला किसने हाथों से मसल दिया,
किसने कर से कर मिला मुझे किस्मत का उर्वर फसल दिया...!

अब ऐसे पथ पे निकल पड़ा हूँ जहाँ अथक चलता जाऊँ,
हर बाधाओं को तोड़ विकट संकट में भी बढ़ता जाऊं..!

क्या कभी समय वो आएगा जब मेरा बचपन खेलेगा,
बचपन से यौवन का संगम सर्वस्व-समर्पण ले लेगा...!

मंदी ने ऐसा मंद किया हर ऑर निराशा का घेरा,
आँखों में बेचैनी छाई मन में भावुकता का डेरा..!

वो कहाँ पिता की गोद विहग वो यूँ माँ की फैली बाहें,
बचपन अब भी उम्मीदों के साए में दिखलाता राहें..!

बस यही समर में गूंजेगा हम हर हालत में जूझेंगे,
अब हर मुश्किल में और सुघड़ ताकतवर बनकर उभरेंगे..
!

2 टिप्‍पणियां:

ब्लॉग पर आने के लिए और अपने अमूल्य विचार व्यक्त करने के लिए चम्पक की और से आपको बहुत बहुत धन्यवाद .आप यहाँ अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर हमें अपनी भावनाओं से अवगत करा सकते हैं ,और इसके लिए चम्पक आपका सदा आभारी रहेगा .

--धन्यवाद !