बचपन के सपनो को ढोता अब डगर-डगर मैं भटक रहा,
अपनी हालत पे पछताता नैनो से आंसू छलक रहा..!
किसकी स्नेहिल आँखों से मैं देखूं कोई मधुरिम सपना,
अब नज़र नहीं आता दुश्मन अब नहीं रहा कोई अपना..!
किसने पैरों से है कुचला किसने हाथों से मसल दिया,
किसने कर से कर मिला मुझे किस्मत का उर्वर फसल दिया...!
अब ऐसे पथ पे निकल पड़ा हूँ जहाँ अथक चलता जाऊँ,
हर बाधाओं को तोड़ विकट संकट में भी बढ़ता जाऊं..!
क्या कभी समय वो आएगा जब मेरा बचपन खेलेगा,
बचपन से यौवन का संगम सर्वस्व-समर्पण ले लेगा...!
मंदी ने ऐसा मंद किया हर ऑर निराशा का घेरा,
आँखों में बेचैनी छाई मन में भावुकता का डेरा..!
वो कहाँ पिता की गोद विहग वो यूँ माँ की फैली बाहें,
बचपन अब भी उम्मीदों के साए में दिखलाता राहें..!
बस यही समर में गूंजेगा हम हर हालत में जूझेंगे,
अब हर मुश्किल में और सुघड़ ताकतवर बनकर उभरेंगे..!
कवि बनने की राह पर नए खुशबूदार पुष्प मिले ,उन्हें एक माला की तरह,अपने कविता-प्रेम के धागे में पिरोकर आगे बढ़ता गया,इन नए पुष्पों को संजोने की कोशिश में एक बहका सा और थोडा भटका सा शायर बन बैठा ,यहाँ प्रस्तुत हैं कुछ वैसे ही अनमोल पुष्प जिन्हें अलग विषयों और अलग-अलग लोगों की पसंद के अनुसार लिखा था मैंने.आप सबसे यही अपेक्षा है कि मुझे आपके प्रेम की छाँव-तले और भी नए खुशबूदार पुष्प मिलें.जिन्हें अपने उसी प्रेम की माला में पिरोकर मैं एक अच्छा शायर और एक उत्कृष्ट कवि बन जाऊं!
bahut achha sir dil ko chhu gaya.....
जवाब देंहटाएंbahut acche bhai...carry on.i visited approximately all blogs and poems of urs.i feel it was the best one....
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