रविवार, 11 अक्तूबर 2009

चम्पक की मधुशाला...!


इसकी भी है उसकी भी है हर प्याले की है हाला,

क्यूँ "चम्पक" को आंसू भर-भर के, जाम पिलाती मधुशाला...?


हर ओर भ्रमर का राग सुनु, अब हर पराग भी है व्याला...

पर क्यूँ "चम्पक" अब हर प्याले में, खोज रहा यूँ मधुशाला?


क्यूँ शीतलता के दामन से, है ओत-प्रोत यह कर-माला...

फिर भी "चम्पक" को कर-माला से, दूर रखे क्यूँ मधुशाला...?


मधु की ऊष्मा का आलंबन, "चम्पक" से क्यूँ छीने हाला...

यदि नही मिले मद-मधु-माला, दे मुझे हलाहल-मधुशाला...!


प्यासा पथ पे मधु का कब से ढूंढें अपनी प्यासी हाला...

क्यूँ "चम्पक" को ग़म के आंसू, भर-भर देती है मधुशाला...?


हाला प्यासी, प्याले प्यासे, प्यासी है प्याले की हाला...

अब डगर-डगर "चम्पक" की धुन, क्यूँ गाये प्यासी मधुशाला...?

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