शनिवार, 10 अक्तूबर 2009




यूँ सहम-सहम कर ही हमने जीने की आदत डाली है....

सत्ता के आगे हो बेबस लुटने की आदत डाली है.....!

नर हो पशु की भाँती जीवन जीकर भी क्या पाया हमने,

घुट कर मरने को ही प्रभु ने, क्या,यह जान बदन में डाली है.........?



है असमंजस में युवा-शक्ति फिर तो यह क्या कर पाएगी,

क्या भ्रष्ट समष्टि से उठकर चेतन व्यष्टि रच पाएगी.......!

यदि नही अभी भी चेतनता युव-युग दृष्टि रच पाती है,

हो तेजहीन ,आसन्न अंत से यह कैसे बच पाएगी....?




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