सोमवार, 7 दिसंबर 2009

सो, हे अलि....!


मैं दिव्यमय तुम ज्योति को कैसे सहन कर पाऊंगा..
मैं चन्द्र बनकर भाप फिर तुझ ज्योति से उड़ जाऊँगा!

तव शिखर की उस दिव्यता में डूब जाना चाहूँ मैं,
तुझमे गुरु सी दिव्यता है पर कहाँ राहू हूँ मैं..!

तव आस में मैं गल गया आंसू की गिरती धार में,
तुम हो कहाँ आओ प्रिये मैं डूबता मंझधार में..!

तुम हो विरह की प्रणयिनी मैं भ्रमर-सा गुंजन करूँ,
तव-विरह के इस भँवर में किस पुष्प का अंजन करूँ ?

हे चांदनी तुम रात में निकलो न इतनी शान से,
मैं डर रहा कहीं खो न दूँ तुझको भी अपना मान के..!

इस जन्म के अंतिम क्षणों तक याद आएगी मुझे,
यह भूल जा किसी ज्योति पे कोई चन्द्र भी कभी न रीझे..!

ना दर्प में मैं चूर हूँ ना गर्व से अभिभूत हूँ,
मैं चन्द्र तेरी दिव्यता से तुझ ज्योति पे आहूत हूं...!

आती है तेरी याद तो हैं मुस्कुराते गम यहाँ,
गम के नगर में छोड़ कर मुझको, अली, तुम हो कहाँ?

हैं नयन तेरे शशक से औ गाल जैसे आम्रफल ,
तू है मेरे मन की ललक यह सोचता मैं आजकल..!

मैं मानता हूँ तुम समुन्नत पथ से नाता जोडती ,
औ मेरे पथ में आ गयी कठिनाइयां हैं कोढ़ सी..!

पर क्या करूँ मैं विवश हूं बाधाएं अब हैं तोडती...
सो, हे कली, आओ ना फिर,क्यूँ मुख हो मुझसे मोडती....?
सो, हे अलि, आओ ना फिर क्यूँ मुख हो मुझसे मोडती......!!

1 टिप्पणी:

ब्लॉग पर आने के लिए और अपने अमूल्य विचार व्यक्त करने के लिए चम्पक की और से आपको बहुत बहुत धन्यवाद .आप यहाँ अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर हमें अपनी भावनाओं से अवगत करा सकते हैं ,और इसके लिए चम्पक आपका सदा आभारी रहेगा .

--धन्यवाद !